शहर भी कभी गांव था




शहर में कदम क्या रखा,
सारे वजूद ही तोड़ आए ।
अब शहरी हो गए है जनाब,
जबसे गांव छोड़ आए ।

शहर माना बहुत सुलझ है,
हर समस्या का वहां हल है ।
गांव में अपनेपन का अहसास है,
इसलिए गांव कुछ ज्यादा खास है ।

सुना है शहर का कहर,
कुछ ऐसा ढा रहा है ।
गांव भी शहर में अब,
बदलता जा रहा है ।

मुझे कोई गिला नहीं लोगो से,
क्योंकि अभी तो हटा दोगे,
फिर गांव ढूंढोगे ।
धूप भरे रास्तों में,
पीपल की छांव ढूंढोगे ।

वास्तव में यही कुछ साकार होता नजर आ रहा है,
जो कि देश की हरियाली हटा रहा है,
मेरी एक विनती है, खूब तरक्की करे ये जमाना,
लेकिन गांव की लाश पर, शहर न उगाना ।


---स्पर्श भटेजा  ( गूलरभोज , रुद्रपुर , उत्तराखंड  )

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