बापू का अंतर्द्वंद




आंसू की धारा पोंछता हुआ,
अंतर्द्वंद से लड़ता हुआ ,
करू तो क्या करू ?
उठ खड़ा हुआ वो दुनिया से लड़ने,
अपने उसूलों के पथ पर चलने ।

हुंकार भरता हुआ,
शेरो सा दहाड़ता हुआ ,
जवानी की कोई फिक्र न थी,
लड़ने की वो कोई उम्र न थी ।

पर फिर भी वो खड़ा हुआ,
अंतर्द्वंद से लड़ता हुआ ।

दुनिया ने बहुत धिक्कारा,
लड़ने को अपना स्वार्थ बताया,
फिर से अंतर्द्वंद से लड़ने लगा,
घायल पंछी सा हवा में उड़ने लगा।

साथ छोड़ते चले गए अपने ,
अंतर्द्वंद की चोट झेल रहे थे सपने ,
ठोकर देखते डर जाता था,
अंतर्द्वंद से लड़ना नहीं चाहता था ।

दिल में भी एक अंतर्द्वंद था,
उसमे भी कोई छंद था,
दिल और दिमाग का दरवाज़ा ,
अब बिल्कुल बंद था ।

आस मिली उसे,
अपने आप को टटोलने पर,
अंतर्द्वंद ने ही मिलवाया उसे ,
उनके पन्ने खोलने पर ।

दरवाज़े खुलते गए आकाश के ,
लौटने लगे पंछी पुराने एहसास के ।

बापू के अंतर्द्वंद की कहानी ये एक थी ,
पर उस अंतर्द्वंद के मायने अनेक थे ।

-- आदित्य राय (काव्यपल)

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