बहुत सता रही है ये गर्मी ।
हवा है, पर ठंडी नहीं,
पानी है ,पर प्यास बुझती नहीं ।
सूरज की किरण है ,
पर अब वो छाओ नहीं ,
खेत हैं पर बदलो में वर्षा नहीं ।
सुख गए है वो सारे नदी-तलाब,
जिस पर लिखे गए कितने किताब ।
घाटों की रौनक फीकी पड़ गयी,
धरती पानी की एक बूंद को तरस गयी ।
ना बजती हैं वो बंसी नदी किनारे,
जिसे सुन पंछी लगते थे चहचहाने ।
उम्मीद तो है ऊपर वाले से,
बुझेगी इस धरती की प्यास,
तब, जब हम छोड़ेंगे करना,
इस प्यारी धरती का उपहास।
यहाँ सुने :-
---आदित्य राय (काव्यपल)
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