डूबते हुए सूरज कों ढलते हुए देखूं ,
वक्त के पहिए को गुजरते हुए देखूं ,
इन मुश्किलों के समय में,
खुद को हीं खुद से लड़ते हुए देखूं ।
रोज़ एक नया ख्वाब टूटते हुए देखूं,
हर दिन एक ख्वाहिश का गला घूंटते हुए देखूं,
प्यासे की प्यास को, मां की आस को,
इंतजार में बदलते हुए देखूं,
कैसे ये मंज़र देखूं ।
ये लम्हा, ये मंजर न जाने कब थमेगा,
इस डर में ही सबको सिहरते हुए देखूं,
वो जो बेबस हैं, लाचार है आज,
उन्हें ही खुद को दिलासा देते हुए देखूं,
एक लाल को मां के दामन से लिपटते हुए देखूं ।
इस खौफनाक मंजर, तन्हाइयों के आलम में,
खुद को सिमटते हुए देखूं,
इन रुके हुए पलों में ,
रोज़ अपने बीतते हुए कल को देखूं ।
बस दुआ है उस रब से की अब ,
इन उदास चेहरों को,
फिर से मुस्कुराते हुए देखूं ।
-- नीलाभ रवि (Bareilly)
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