सफ़र की छाँव







कानो में गूंजती छुक छुक की आवाज़,
शायद मन को दूर जाने का एहसास कराती है ।
कुछ लोग पुकार रहे होते हैं मंजिल की तरफ,
कुछ लोग पुकार रहे होते हैं साहिल की तरफ ।

मन स्थिर होकर भी महसूस न करना चाहता ,
अपनो से दूर जाने के एहसास को ।
शायद सफ़र की उन लंबी रातों के लिए बचा लेते हैं,
हम उन एहसासों को , उन सिसकती आवाज़ो को ।

अनजानों के साथ सफ़र करना मुश्किल ना होता ,
अगर राहों में अपना साथी हमसफर सा होता,
मंजिल के बारे में सोचता मन शांत पंछी सा होता,
भीड़ में शायद अपनो के होने का भी एहसास होता ।

लंबे सफर को भी नहीं पता होता
की वो इतनी लंबी हो जायेगी ।
खेतो , पहाड़ों, नदियों, शहर, गांव,
हवा, पानी, दरिया, पेड़ो की छांव,
उन रास्तों के उबासी के वो भाव ।

लगता हैं जैसे मंजिल पुकार रही हो, 
अपने आवाज़ को बुलंद कर रही हो ।
आना है तुम्हे , अधूरे कुछ काम रह गए हैं,
जीवन की डोर के कुछ पहलू 
अभी खोलने को बाकी रह गए हैं ।


यहाँ सुने :-

---आदित्य राय (काव्यपल)

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