मेरा छोटा शहर





संकीर्ण गलियों का मेरा छोटा शहर,
नदी किनारे बसा मेरा छोटा शहर,
मंदिर की घंटियों में झूमता मेरा छोटा शहर ।

हवाओं में बहती वो यादें,
जिनमे छिपे हैं कई वादें,
जिन्होने दिए हौसलों को इरादें ।

गोल मैदानों में खेलता वो बचपन,
उनमें ढूंढते जवानी के वो दर्पण,
खो गया कहीं वो लड़कपन ।

हौसलों में पंख लगाए उड़ चले थे हम,
नए मुसाफिरों संग बढ़ चला था सफ़र,
खुद को तराशने की थी मुश्किल डगर ।

आंखों में बसे सपने कब दिल में उतर गए,
नई राहों में हम कितने दूर चल गए,
कब जाने हम अपना छोटा सा शहर भूल गए ।

कुछ अपने भी छूट गए,
कुछ साथी भी रूठ गए,
सपने भी कुछ टूट गए ।

समय के पहिए ने खूब घुमाया,
बड़े शहरों में दुनिया दिखाया,
ना जाने आज क्यूं मुझे
मेरा छोटा सा शहर याद आया ।

ना जाने आज क्यूं मुझे
मेरा छोटा सा शहर याद आया ।


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---आदित्य राय (काव्यपल)


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